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©poetry_of_sjt
#reetey
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poetry_of_sjt 3w
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भ्रम पाले तुम बैठे हो कि कश्मीर तुम्हें मिल जाएगा ,
जिस दिन भी गर हुआ सामना तब समझ फिर आएगा ,
अभी वक़्त है समझ सको तो ना भूलो औकात को,
काश्मीर के चक्कर में पाकिस्तान भी हाथ से जाएगा
टुकड़ों में पलते आया है टुकड़ों में ही मिल जाएगा ,
हद की सीमा पार किया तो ऊपर सीधा जाएगा ,
माफ़ी नहीं दी जाएगी अब गया समय पहले वाला ,
इतने टुकड़े करेंगे की सौ जन्म भी गिन ना पाएगा ,
जो अब भी ना माने तो इतिहास वही दोहराएगा ,
क्षमादान तब पाए थे अब कोई को न छोड़ा जाएगा ,
नीच हरकतों से गर तुम अब बाज़ नहीं आए तो फिर ,
दुनिया के नक्शे में से पाकिस्तान हटा दिया जाएगा ,
जो दोहरा रहा गलती इक दिन बहुत पछताएगा ,
अभी समय है सुधर जा नहीं फिर मातम छा जाएगा ,
तरस करो उन मां बहनों पर बूढे बच्चों का ख्याल करो ,
क्या बोलेगा उस रब से या फिर मौन खड़ा रह जाएगा ,
जय हिन्द
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ankita_samanta 3w
जीवन के इस मोड़ पर
जब मैं पीछे देखती हूँ
दिखाई देती है मुझे
मेरी छवी,
बड़ी बड़ी आँखों वाली
छोटी सी लड़की,
उन आँखों में मगर
सपने बहुत बड़े थे,
अब तो खैर आँखें वो दिखती नहीं
चश्मे का पहरा जो लग गया है.
दिखाई देती है मुझे
ठंडी सी छांव,
गर्मी के महीनों में
मेरा वो छोटा सा गांव,
महीनों की छुट्टियाँ
तब सुकून से गुज़रती थी,
अब तो छुट्टियों के भी
बस सपने रह गए हैं,
अब हम बड़े जो हो गए हैं.
दिखाई देती है मुझे
मेरी छोटी सी दुनिया,
वहाँ मैं हूँ, मेरे खिलौने हैं
मेरा घर, मेरा स्कूल, मेरे माँ-पापा,
सब हैं बस एक
ज़िंदगी की मुश्किलें नहीं हैं.
जीवन के इस मोड़ पर
जब मैं पीछे देखती हूँ,
मुझे वो सपने दिखते हैं
जिन्हें मैं जी रही हूँ,
जी रही हूँ?
या सपने पूरे करने में
जीना छूट गया है?
वक़्त बदला,
शहर बदला,
घर भी बदल ही गया.
अब हम अपने ही घर में मेहमान हैं,
जिस ज़िंदगी के पीछे
ज़िंदगी भर भागते रहे,
आज वो भी है
पर भी उसमे ज़िंदगी कहाँ है,
आज जो हम खुद के घर मेहमान हैं
ये इसी ज़िंदगी की तो दान है.
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@hindiwriters @reetey @hindiurduwriters @mirakeeworld @mirakeeबदलता वक़्त
जीवन के इस मोड़ पर
जब मैं पीछे देखती हूँ..
©ankita_samanta -
रिश्तों में नमी थी, सो अमानत बनी रही
सूखा नहीं कभी भी उसका दिया गुलाब
- रीतेय । @imreetey -
गाँधी तेरा देश
गए चाँद तक, मंगल पर भी
ख़ूब हुआ है सैर।
दुश्मन को भी दोस्त बनाया
ख़त्म किया कुछ बैर।
स्वास्थ्य सुधारा, सड़के बनाई
शिक्षित हुआ है देश।
दिया विश्व को आगे बढ़
हमने भी कुछ संदेश।
किंतु इतना आगे आकर
अब भी हम हैं पीछे
मूलभूत सुविधाएँ से हैं
अब भी नज़रें खींचे
जनता आज सड़क पर उतरी,
नेता मूक भवन में।
संघर्षों की बाढ़ है उमड़ी
जन-जन के जीवन में।
सिर्फ़ वोट से नहीं यहाँ अब
सरकारें बनती है।
फ़ोटो वाले नोटों की ही
आख़िर में चलती है।
जिसने जितने नोट उड़ाए
उसके उतने वोट।
ढूँढ रहे अब नेता-जनता
एक-दूजे में खोट।
रोज़ मनाता होली ख़ूनी
खबरों से अख़बार।
लाल क़िला की प्राचीरें भी
देखती दुर्व्यवहार।
आज़ादी के मज़े लूटते
किस तरह चोर उच्चके।
अगर देखते बापू तुम
रह जाते हक्के-बक्के।
देख रही दुनिया भारत का
कैसा-कैसा वेश
देखो कैसे बदल रहा है
गाँधी तेरा देश!
- रीतेय
३० जनवरी २०२१ -
भीड़ नहीं करती है मुहब्बत
और ना ही करती है नफ़रत
मगर कर सकती है दोनों
करवाए जाने पर।
भीड़ ने बैठना सीखा है
पिछली सीट पर, आरंभ से,
भीड़ की आदत है देखने की
फिर उसे हू-ब-हू उतारने की
भीड़ के लिए होता है आसान
मुश्किलें पैदा करना
कभी भी, कहीं भी
और किसी भी तय क़ीमत पर।
भीड़ अक्सर लगती है मुफ़्त की
मगर मुफ़्त की नहीं होती।
मय्यत में भी नहीं!
वो देर आती है
और दुरुस्त रहती है।
- रीतेय -
उम्र उम्र की बात
एक उम्र के बाद,
लड़के नहीं चाहते हैं प्रेमिकाएं।
अगर न हो,
तो नहीं होता है मलाल,
किसी के नहीं होने का।
और अगर हो भी
तो की जाती हैं कोशिशें
बदलने की,
प्रेमिकाओं को जीवनसाथी में।
एक उम्र के बाद,
नहीं रहता है शेष,
उतनी उम्र और जवानी,
कि लुटाया जा सके,
दोनों को फिर एक बार।
एक उम्र के बाद,
कमजोर पड़ जाती हैं ज्ञानेंद्रियां।
नाक कर देती है इंकार,
एक खास खुशबू के अलावा
तमाम सुगंधों को।
वो ख़ुशबू जिसकी मौजूदगी में,
नाक स्वेच्छापूर्वक खींच लेता है,
एक लम्बी साँस, सुकून की।
कान ठिठक जाना चाहता है,
उसी एक आवाज़ पर
जो उसे लगने लगता है अपना सा।
वही एक अभ्यस्त आवाज़,
जिसमें कही गयी तमाम बातें
अक्सर अच्छी लगती है।
आँखें नहीं चाहती हैं देखना
फिर से कोई नयी सूरत।
नहीं होती है तमन्ना
किसी दो और आँखों में खोने की।
नहीं चाहती है कि खाली हो,
अपने अंदर का कोई कमरा।
नहीं चाहता है क्षण भर को भी,
वो अपने अंदर एक खालीपन।
हाथों को लग चुकी होती है आदत,
एक ख़ास नर्म, सुंदर और गर्म हाथों की,
जिसे थामते हुए हो जाता है एहसास
मानो दुनिया के अंदर,
एक दुनिया सिमटी जा रही हो।
नहीं चाहता है हाथ नापना ज़िंदगी को,
फिर से किसी और हाथों की उँगलियों में।
नहीं चाहता है एक नयी लक़ीर,
किसी और हाथों की नाखूनों से।
एक उम्र के बाद,
ज़िंदगी तय कर चुकी होती है,
ज़रूरतें, ज़िम्मेदारी, ख़्वाहिश, ख़ुशी
स्नेह, सम्मान, स्वीकृति, समर्पण
सब कुछ।
एक उम्र के बाद,
उम्र नहीं चाहता है ख़ुद को दोहराना।
-रीतेय
१२/३१/२०१९
©reetey -
मैं नहीं ला सकूँगा
तुम्हारे लिए तोड़कर कुछ भी।
क्योंकि, प्रेम में
कुछ भी तोड़ना अच्छा नहीं है।
वादे, दिल, चाँद या कुछ भी!
-रीतेय
©reetey -
आईना देखते हुए
ख़ुद से एक सवाल किया।
उदास हो?
उत्तर मिला, नहीं!
सवाल बदलकर पूछा
ख़ुश हो?
उत्तर नहीं बदला!
एहसास हुआ कि कभी-कभी
अपने अंदर
मध्यस्थता करते हुए,
कुछ लोग
कहीं के भी नहीं हो पाते हैं!
- रीतेय
©reetey -
हर बार नहीं की जा सकती है
एक नयी शुरुआत।
गुजरते हुए,
छूटता चला जाता है इंसान हर जगह।
क्योंकि,
हर बार नहीं होता है आसान
समेटना,
बिखरे हुए ख़ुद को।
कल जहां था, पूरा नहीं था।
कल जहां होगा, पूरा नहीं होगा।
कभी-कभी लगता है कि डरता है इंसान
पूरा हो जाने से।
डर यही की ज़िंदगी पूरी हो जाए
तो ज़िंदगी नहीं रहती।
मैं भी नहीं ढूँढ सकता हर बार
एक ख़ाली पन्ना
और इसलिए कभी-कभी
रह जाती है कविताएँ अधूरी।
— रीतेय
©reetey -
दस्तख़त
सुबह का समय था। गोपाल बाबू रोज की तरह तैयार हो रहे थे ताकि सुबह की साढ़े सात वाली ट्रेन पकड़ सके। ऑफ़िस क़रीब ३ घंटे की दूरी पर थी अतः सुबह की ट्रेन छूट जाए तो ऑफ़िस नहीं जाने के अलावा कोई और उपाय भी नहीं था। राज्य सरकार कि किसी हाई स्कूल में भौतिकी और गणित पढ़ते थे गोपाल बाबू और हम ९ से ५ वालों के तरह उनके पास वर्क फ़्रम होम जैसे सुविधाएँ नहीं थी। यूँ तो उनका शिक्षक बनाना अपने आपमें एक लम्बी कहानी है पर आज जिसकी ज़िक्र होनी है वो कहानी कुछ और है।
सुबह के ७ बज चुके हैं , गोपाल बाबू अपना झोला उठा कर स्टेशन की ओर निकलने ही वाले हैं। इसी बीच उनकी माँ ने आवाज़ लगायी।
- अरे गोपाल, एक बात पूछनी थी।
- कहो माँ।
-अच्छा ये बताओ, ये बैंक क्या होता है?
-माँ, बैंक वही होता है जहां लोग पैसा जमा करते हैं।
-अच्छा, तो वह हर कोई पैसा जमा करा सकता है?
- हाँ, हर कोई (गोपाल बाबू ने बात को जल्दी ख़त्म करने की सोच कर सीधा सा जवाब दिया और आँगन से बाहर आ गये)
इससे पहले की माँ कुछ और पूछती, समय की नज़ाकत को ज़हन में रखते हुए गोपाल बाबू स्टेशन की ओर चल पड़े।
स्टेशन करीब १० मिनट की दूरी पर था। गोपाल बाबू स्टेशन की ओर चल रहे थे और साथ ही साथ माँ की बात उनके मन में। गोपाल बाबू यह बात बख़ूबी जानते हैं कि उनकी माँ जिज्ञासु हैं और उन्होंने किसी को बोलते सुना होगा बैंक के बारे में।
सोचते सोचते गोपाल बाबू स्टेशन पहुंचे, गाड़ी पकड़ी और चले गये ं। वो बात स्टेशन पर रह गयी, शायद इंतज़ार में कि जब गोपाल बाबू वापस लौटेंगे तो बात उनके साथ वापस घर तक जाएगी।
इधर माँ ने गोपाल बाबू की बात, की बैंक में कोई भी पैसा जमा करवा सकता है, को सोचती रही। अपना संदूक खोला, सारे पैसे निकाले और बरामदे के एक किनारे पर रख दिया। वो नहीं जानती थीं कि किस सिक्के या फिर नोट की क्या कीमत है। जो सिक्के या नोट एक जैसे दिखे, एक साथ रख दिया।
दिन निकल गया। इधर माँ अपने हिस्से की काम काज निबटाती रहीं। उधर गोपाल बाबू अलग-अलग कक्षाओं में गणित और भौतिकी पढ़ाते रहे। माँ की बात स्टेशन पर इंतज़ार करती रही और पैसे अपने गिने जाने के इंतज़ार में बरामदे में पड़ा रहा।
शाम की बत्ती जलाई जा चुकी थी। ट्रेन की सीटी बजी। माँ अपने बाकी के बचे जिज्ञासाओं के साथ दरवाजे के सामने वाले मचान पर इंतज़ार कर रही थी। गोपाल बाबू जैसे ही लौटे और कपड़े बदल कर माचान की तक आए, माँ की बाकी बची जिज्ञासाएं भी एक एक कर सामने आने लगी और माँ बेटे का वार्तालाप चलता रहा।
माँ ने कहा, गोपाल मुझे भी अपने पैसे बैंक में जमा कराने हैं।
गोपाल बाबू थोड़े हैरान हुए और पूछ बैठे की माँ आपके पास तो संदूक है ही। उसी में रखा करो आप।
नहीं नहीं कल वो जो खेत में काम करने आयी थी, बता रही थी की उसके मुहल्ले में परसों रात चोरी हो गई। क्या पता कल कोई मेरा संदूक ही उठा ले जाए?
गोपाल बाबू माँ की बात समझ तो गये थे पर कहीं न कहीं बात टालने की मुद्रा में ही थे।
उन्होंने कहा, माँ ऐसा करो कि आप पैसा मुझे दे दो और मैं अपने खाते में जमा करवा दूंगा।
नहीं नहीं, मुझे अपने खाते में करवाना है।
माँ पर बैंक खाते के लिए आपको अपना दस्तखत करना होगा या फिर अंगूठा का निशान लगाना होगा? और अंगूठा तो आप लगाओगी नहीं।
गोपाल बाबू जानते थे कि माँ अंगूठे का निशान नहीं लगाएंगी, क्योंकि सालों पहले, गोपाल बाबू के पिता के देहावसान के उपरांत, जब गोपाल बाबू ५ साल के भी नहीं थे, किसी ने धोखे से माँ का अंगूठा निशान लेकर सारी ज़ायदाद अपने नाम कर लिया था। और जब ये बात बाद में उन्हें पता चली और उन्हें बेघर होना पड़ा, तो माँ ने ये कसम खायी थी कि ज़िंदगी में कभी अंगूठे का निशान नहीं लगाएंगी।
माँ ने कुछ देर सोचा और कहा कि मैं दस्तखत करूंगी और दस्तखत करके ही जमा कराऊंगी अपने पैसे।
-लेकिन माँ, आपको तो आता ही नहीं है दस्तखत करना?
-तो सीखूंगी, क्यों ये सीख नहीं सकती मैं?
-हाँ, सीख तो सकती हो आप लेकिन कैसे, ये सोच रहा हूं।
-स्कूल में सबको जोड़-घटाव सिखाते हो, मुझे दस्तखत नहीं सिखा पाओगे? ये सवाल उस औरत की थी जिसकी जीवन संघर्षों पर किताबें लिखी जा सकती है।
खायर, गोपाल बाबू ने कहा..
-हाँ माँ, कल सिखाता हूं आपको।
गोपाल बाबू समझ चुके थे कि माँ ने निश्चय कर लिया है तो बिना बैंक में पैसे जमा कराए नहीं मानेगी।
और अगर पूरी वर्णमाला सिखाने लगे तो काफ़ी वक्त भी लगेगा और माँ के नाम की सारे अक्षर वैसे भी वर्णमाला के आख़िरी वाले हैं।
अगली सुबह आफिस जाने के पहले गोपाल बाबू ने कोई पूरानी कापी के एक खाली पन्ने पर पहली लाइन में माँ का नाम लिखा और माँ से कहा की आप ये देख कर बाकी की लाइनों में लिखो।
मैं शाम को नयी कापी ले आऊंगा। आप एक बार हस्ताक्षर सीख जाओगी तो हम बैंक चलेंगे और आपके पैसे जमा करा आएंगे।
दिन फिर से गुज़रा.. हमेशा की तरह आज भी माँ के पास काम बहुत थे लेकिन उन्होंने सिर्फ वही किया जो सबसे ज्यादा जरूरी था।
शनिवार की वज़ह से गोपाल बाबू शाम धूंधलाने के पहले घर लौट आए थे। जैसे ही वापस आकर गोपाल बाबू ने नयी कापी और क़लम माँ को पकड़ाया.. माँ ने पहला पन्ना खोला और एक संतुष्टि भरे एहसास के साथ अपना दस्तखत कर दिया।
गोपाल बाबू अचंभित थे क्योंकि पूरानी कापी में सिर्फ़ एक ही पन्ना खाली था।
माँ ने बेटे की हतप्रभता को महसूस किया और खींचकर आंगन ले गयी। पूरा आंगन एक कापी की तरह खुला हुआ और न जाने कितनी बार उस पर माँ ने पूरानी कापी में देखते हुए लिखा था अपना नाम।
उस शाम गोपाल बाबू ने ढलते सूरज के साथ देखा था ख़्वहिश और समर्पण की एक नयी सुबह।
-रीतेय -
अलग हो तो भी साथ में देखे,
ऐसी नज़रें हैं मुकम्मल नज़रें!
- रीतेय
©reetey -
दिल मे जब तक नमी रहेगी दोस्त
बातें तब तक दबी रहेगी दोस्त
सुलझी बातों में अगर उलझे तो
एक शिकायत बनी रहेगी दोस्त
नापना-तौलना अगर सीखे
फिर तिजारत बची रहेगी दोस्त
तुम रहोगे, रहूँगा मैं भी
ये दोस्ती नहीं रहेगी दोस्त
- रीतेय
©reetey -
मन में जब तक मलाल रक्खोगे
हाल अपना, बेहाल रक्खोगे
छोड़ो गर छूट रही हो दुनिया
तुम भी कितना ख़याल रक्खोगे
ज़ुबान खुलेंगी, तनेंगी भौंहें
किसे-किसे निहाल रक्खोगे
ग़लत इतने भी नहीं तुम ‘रीतेय’
मन में कब तक सवाल रक्खोगे
- रीतेय
©reetey -
एक ही हिज्र सबपे भारी है
याद कितने विसाल रक्खोगे
- रीतेय -
ख़ुद के आगे ना सोच पाए तुम,
सोच लेते तो फिर ख़ुदा होता ।
- रीतेय
©reetey -
अब है हर शख़्स परेशान अपनी दुनिया में,
कौन पूछेगा परेशानी की वजह, किससे?
- रीतेय
©reetey -
जब से तन्हाई ज़हन तक आयी
कोई मुझ तक तो नहीं आता है
वो भी दिन थे कि भीड़ होती थी
ये भी दिन है कि बस सन्नाटा है
- रीतेय
©reetey -
reetey 9w
Wishing you good health, happiness and prosperity in 2021!
#Reetey #ReeteyRecitesहौले से फिर कहा दिसंबर ने,
एक नयी जनवरी मुबारक हो!
-रीतेय
©reetey -
ankita_samanta 12w
एक प्याली चाय
वो ढलती सी शाम,
वो खिलता सा चाँद,
रसोई से आती चाय की खुशबू,
वो गर्म पकौड़े की थाली,
क्यूँ ना वो लम्हें आज जी लें फिर से?
साथ चाय ही पी लें एक प्याली।
©ankita_samanta -
aditya__anchal 23w
// सड़क //
गांव की कच्ची डगर हो या शहर का चमकता हाईवे , आख़िर अंत में तो वो बस एक सड़क ही है .... इतने लंबे समय में सड़क ने जो भी देखा, महसूस किया, उन्हें शब्द देने की कोशिश की गई है ।
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@hindiwriters @hindikavyasangam @hindii @writer_bychoice @drinderjeet @rhapsodist @rainberry @bhavnarverma @shashiinderjeet....
हमने आपकी रचनाएँ पढ़ी, वह सभी अद्वितिय हैं। हम आपको अपनी नई पुस्तक में सहयोग देने के लिए आमंत्रित करना चाहते हैं। पुस्तक आपके नाम के साथ प्रकाशित होगी साथ उसकी प्रतियां भी आपको दी जाएंगी। आपको सम्मानित करते हुए स्वर्ण पदक भी दिया जाएगा।
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