उम्र उम्र की बात
एक उम्र के बाद,
लड़के नहीं चाहते हैं प्रेमिकाएं।
अगर न हो,
तो नहीं होता है मलाल,
किसी के नहीं होने का।
और अगर हो भी
तो की जाती हैं कोशिशें
बदलने की,
प्रेमिकाओं को जीवनसाथी में।
एक उम्र के बाद,
नहीं रहता है शेष,
उतनी उम्र और जवानी,
कि लुटाया जा सके,
दोनों को फिर एक बार।
एक उम्र के बाद,
कमजोर पड़ जाती हैं ज्ञानेंद्रियां।
नाक कर देती है इंकार,
एक खास खुशबू के अलावा
तमाम सुगंधों को।
वो ख़ुशबू जिसकी मौजूदगी में,
नाक स्वेच्छापूर्वक खींच लेता है,
एक लम्बी साँस, सुकून की।
कान ठिठक जाना चाहता है,
उसी एक आवाज़ पर
जो उसे लगने लगता है अपना सा।
वही एक अभ्यस्त आवाज़,
जिसमें कही गयी तमाम बातें
अक्सर अच्छी लगती है।
आँखें नहीं चाहती हैं देखना
फिर से कोई नयी सूरत।
नहीं होती है तमन्ना
किसी दो और आँखों में खोने की।
नहीं चाहती है कि खाली हो,
अपने अंदर का कोई कमरा।
नहीं चाहता है क्षण भर को भी,
वो अपने अंदर एक खालीपन।
हाथों को लग चुकी होती है आदत,
एक ख़ास नर्म, सुंदर और गर्म हाथों की,
जिसे थामते हुए हो जाता है एहसास
मानो दुनिया के अंदर,
एक दुनिया सिमटी जा रही हो।
नहीं चाहता है हाथ नापना ज़िंदगी को,
फिर से किसी और हाथों की उँगलियों में।
नहीं चाहता है एक नयी लक़ीर,
किसी और हाथों की नाखूनों से।
एक उम्र के बाद,
ज़िंदगी तय कर चुकी होती है,
ज़रूरतें, ज़िम्मेदारी, ख़्वाहिश, ख़ुशी
स्नेह, सम्मान, स्वीकृति, समर्पण
सब कुछ।
एक उम्र के बाद,
उम्र नहीं चाहता है ख़ुद को दोहराना।
-रीतेय
१२/३१/२०१९
©reetey
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मैं नहीं ला सकूँगा
तुम्हारे लिए तोड़कर कुछ भी।
क्योंकि, प्रेम में
कुछ भी तोड़ना अच्छा नहीं है।
वादे, दिल, चाँद या कुछ भी!
-रीतेय
©reetey -
आईना देखते हुए
ख़ुद से एक सवाल किया।
उदास हो?
उत्तर मिला, नहीं!
सवाल बदलकर पूछा
ख़ुश हो?
उत्तर नहीं बदला!
एहसास हुआ कि कभी-कभी
अपने अंदर
मध्यस्थता करते हुए,
कुछ लोग
कहीं के भी नहीं हो पाते हैं!
- रीतेय
©reetey -
हर बार नहीं की जा सकती है
एक नयी शुरुआत।
गुजरते हुए,
छूटता चला जाता है इंसान हर जगह।
क्योंकि,
हर बार नहीं होता है आसान
समेटना,
बिखरे हुए ख़ुद को।
कल जहां था, पूरा नहीं था।
कल जहां होगा, पूरा नहीं होगा।
कभी-कभी लगता है कि डरता है इंसान
पूरा हो जाने से।
डर यही की ज़िंदगी पूरी हो जाए
तो ज़िंदगी नहीं रहती।
मैं भी नहीं ढूँढ सकता हर बार
एक ख़ाली पन्ना
और इसलिए कभी-कभी
रह जाती है कविताएँ अधूरी।
— रीतेय
©reetey -
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थोड़ा तो अपनी शान-ए-सितम का ख़्याल कर
आँसू बह़ाल कर मेरे आँसू बह़ाल कर
पाने का जश्न अपनी जगह है मगर कभी
जो खो दिया है उसका भी थोड़ा मलाल कर
कितने जवाब तेरे ही अंदर हैं मुंतज़िर
ख़ुदसे नज़र मिला कभी ख़ुदसे सवाल कर
- राजेश रेड्डी -
दस्तख़त
सुबह का समय था। गोपाल बाबू रोज की तरह तैयार हो रहे थे ताकि सुबह की साढ़े सात वाली ट्रेन पकड़ सके। ऑफ़िस क़रीब ३ घंटे की दूरी पर थी अतः सुबह की ट्रेन छूट जाए तो ऑफ़िस नहीं जाने के अलावा कोई और उपाय भी नहीं था। राज्य सरकार कि किसी हाई स्कूल में भौतिकी और गणित पढ़ते थे गोपाल बाबू और हम ९ से ५ वालों के तरह उनके पास वर्क फ़्रम होम जैसे सुविधाएँ नहीं थी। यूँ तो उनका शिक्षक बनाना अपने आपमें एक लम्बी कहानी है पर आज जिसकी ज़िक्र होनी है वो कहानी कुछ और है।
सुबह के ७ बज चुके हैं , गोपाल बाबू अपना झोला उठा कर स्टेशन की ओर निकलने ही वाले हैं। इसी बीच उनकी माँ ने आवाज़ लगायी।
- अरे गोपाल, एक बात पूछनी थी।
- कहो माँ।
-अच्छा ये बताओ, ये बैंक क्या होता है?
-माँ, बैंक वही होता है जहां लोग पैसा जमा करते हैं।
-अच्छा, तो वह हर कोई पैसा जमा करा सकता है?
- हाँ, हर कोई (गोपाल बाबू ने बात को जल्दी ख़त्म करने की सोच कर सीधा सा जवाब दिया और आँगन से बाहर आ गये)
इससे पहले की माँ कुछ और पूछती, समय की नज़ाकत को ज़हन में रखते हुए गोपाल बाबू स्टेशन की ओर चल पड़े।
स्टेशन करीब १० मिनट की दूरी पर था। गोपाल बाबू स्टेशन की ओर चल रहे थे और साथ ही साथ माँ की बात उनके मन में। गोपाल बाबू यह बात बख़ूबी जानते हैं कि उनकी माँ जिज्ञासु हैं और उन्होंने किसी को बोलते सुना होगा बैंक के बारे में।
सोचते सोचते गोपाल बाबू स्टेशन पहुंचे, गाड़ी पकड़ी और चले गये ं। वो बात स्टेशन पर रह गयी, शायद इंतज़ार में कि जब गोपाल बाबू वापस लौटेंगे तो बात उनके साथ वापस घर तक जाएगी।
इधर माँ ने गोपाल बाबू की बात, की बैंक में कोई भी पैसा जमा करवा सकता है, को सोचती रही। अपना संदूक खोला, सारे पैसे निकाले और बरामदे के एक किनारे पर रख दिया। वो नहीं जानती थीं कि किस सिक्के या फिर नोट की क्या कीमत है। जो सिक्के या नोट एक जैसे दिखे, एक साथ रख दिया।
दिन निकल गया। इधर माँ अपने हिस्से की काम काज निबटाती रहीं। उधर गोपाल बाबू अलग-अलग कक्षाओं में गणित और भौतिकी पढ़ाते रहे। माँ की बात स्टेशन पर इंतज़ार करती रही और पैसे अपने गिने जाने के इंतज़ार में बरामदे में पड़ा रहा।
शाम की बत्ती जलाई जा चुकी थी। ट्रेन की सीटी बजी। माँ अपने बाकी के बचे जिज्ञासाओं के साथ दरवाजे के सामने वाले मचान पर इंतज़ार कर रही थी। गोपाल बाबू जैसे ही लौटे और कपड़े बदल कर माचान की तक आए, माँ की बाकी बची जिज्ञासाएं भी एक एक कर सामने आने लगी और माँ बेटे का वार्तालाप चलता रहा।
माँ ने कहा, गोपाल मुझे भी अपने पैसे बैंक में जमा कराने हैं।
गोपाल बाबू थोड़े हैरान हुए और पूछ बैठे की माँ आपके पास तो संदूक है ही। उसी में रखा करो आप।
नहीं नहीं कल वो जो खेत में काम करने आयी थी, बता रही थी की उसके मुहल्ले में परसों रात चोरी हो गई। क्या पता कल कोई मेरा संदूक ही उठा ले जाए?
गोपाल बाबू माँ की बात समझ तो गये थे पर कहीं न कहीं बात टालने की मुद्रा में ही थे।
उन्होंने कहा, माँ ऐसा करो कि आप पैसा मुझे दे दो और मैं अपने खाते में जमा करवा दूंगा।
नहीं नहीं, मुझे अपने खाते में करवाना है।
माँ पर बैंक खाते के लिए आपको अपना दस्तखत करना होगा या फिर अंगूठा का निशान लगाना होगा? और अंगूठा तो आप लगाओगी नहीं।
गोपाल बाबू जानते थे कि माँ अंगूठे का निशान नहीं लगाएंगी, क्योंकि सालों पहले, गोपाल बाबू के पिता के देहावसान के उपरांत, जब गोपाल बाबू ५ साल के भी नहीं थे, किसी ने धोखे से माँ का अंगूठा निशान लेकर सारी ज़ायदाद अपने नाम कर लिया था। और जब ये बात बाद में उन्हें पता चली और उन्हें बेघर होना पड़ा, तो माँ ने ये कसम खायी थी कि ज़िंदगी में कभी अंगूठे का निशान नहीं लगाएंगी।
माँ ने कुछ देर सोचा और कहा कि मैं दस्तखत करूंगी और दस्तखत करके ही जमा कराऊंगी अपने पैसे।
-लेकिन माँ, आपको तो आता ही नहीं है दस्तखत करना?
-तो सीखूंगी, क्यों ये सीख नहीं सकती मैं?
-हाँ, सीख तो सकती हो आप लेकिन कैसे, ये सोच रहा हूं।
-स्कूल में सबको जोड़-घटाव सिखाते हो, मुझे दस्तखत नहीं सिखा पाओगे? ये सवाल उस औरत की थी जिसकी जीवन संघर्षों पर किताबें लिखी जा सकती है।
खायर, गोपाल बाबू ने कहा..
-हाँ माँ, कल सिखाता हूं आपको।
गोपाल बाबू समझ चुके थे कि माँ ने निश्चय कर लिया है तो बिना बैंक में पैसे जमा कराए नहीं मानेगी।
और अगर पूरी वर्णमाला सिखाने लगे तो काफ़ी वक्त भी लगेगा और माँ के नाम की सारे अक्षर वैसे भी वर्णमाला के आख़िरी वाले हैं।
अगली सुबह आफिस जाने के पहले गोपाल बाबू ने कोई पूरानी कापी के एक खाली पन्ने पर पहली लाइन में माँ का नाम लिखा और माँ से कहा की आप ये देख कर बाकी की लाइनों में लिखो।
मैं शाम को नयी कापी ले आऊंगा। आप एक बार हस्ताक्षर सीख जाओगी तो हम बैंक चलेंगे और आपके पैसे जमा करा आएंगे।
दिन फिर से गुज़रा.. हमेशा की तरह आज भी माँ के पास काम बहुत थे लेकिन उन्होंने सिर्फ वही किया जो सबसे ज्यादा जरूरी था।
शनिवार की वज़ह से गोपाल बाबू शाम धूंधलाने के पहले घर लौट आए थे। जैसे ही वापस आकर गोपाल बाबू ने नयी कापी और क़लम माँ को पकड़ाया.. माँ ने पहला पन्ना खोला और एक संतुष्टि भरे एहसास के साथ अपना दस्तखत कर दिया।
गोपाल बाबू अचंभित थे क्योंकि पूरानी कापी में सिर्फ़ एक ही पन्ना खाली था।
माँ ने बेटे की हतप्रभता को महसूस किया और खींचकर आंगन ले गयी। पूरा आंगन एक कापी की तरह खुला हुआ और न जाने कितनी बार उस पर माँ ने पूरानी कापी में देखते हुए लिखा था अपना नाम।
उस शाम गोपाल बाबू ने ढलते सूरज के साथ देखा था ख़्वहिश और समर्पण की एक नयी सुबह।
-रीतेय -
अलग हो तो भी साथ में देखे,
ऐसी नज़रें हैं मुकम्मल नज़रें!
- रीतेय
©reetey -
दिल मे जब तक नमी रहेगी दोस्त
बातें तब तक दबी रहेगी दोस्त
सुलझी बातों में अगर उलझे तो
एक शिकायत बनी रहेगी दोस्त
नापना-तौलना अगर सीखे
फिर तिजारत बची रहेगी दोस्त
तुम रहोगे, रहूँगा मैं भी
ये दोस्ती नहीं रहेगी दोस्त
- रीतेय
©reetey -
मन में जब तक मलाल रक्खोगे
हाल अपना, बेहाल रक्खोगे
छोड़ो गर छूट रही हो दुनिया
तुम भी कितना ख़याल रक्खोगे
ज़ुबान खुलेंगी, तनेंगी भौंहें
किसे-किसे निहाल रक्खोगे
ग़लत इतने भी नहीं तुम ‘रीतेय’
मन में कब तक सवाल रक्खोगे
- रीतेय
©reetey -
एक ही हिज्र सबपे भारी है
याद कितने विसाल रक्खोगे
- रीतेय
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तुम किताब हिन्दी की, मैं उसका कोई छंद सा,
तुम बरसाने की राधा, मैं तुझमे रहूं गोविंद सा,
तुम मिलन की जल्दी में, मैं उसमे भी विलंब सा,
तुम किताब हिन्दी की, मैं उसका कोई छंद सा,
तुम पुत्री रुक्मणी सी, मैं एक पिता श्री नंद सा,
तुम फूल हो गुलाब का मैं ज़मी में दबा कन्द सा,
तुम ढलते'सूर्य की आभा सी,मैं धूप की सुगंध सा,
तुम किताब हिन्दी की, मैं उसका कोई छंद सा
तुम आंगन हो मेरे घर का, मैं कमरा कोई बंद सा,
तुम एक ग्रह के बराबर हो , मैं कोई भूमि खंड सा,
तुम गर्मी की मचलती धूप हो, मैं सर्दी की ठंड सा,
तुम किताब हिन्दी की, मैं उसका कोई छंद सा,
©ajit___ -
tanha_ 4d
दुख अंदर है दुख है बाहर, दुख से भरा हुआ संसार
तुम हंस दो तो जीत हमारी, तुम रो दो तो अपनी हार
©tanha_ -
shashwatkumar111 62w
मोहमाया
Jo ho gaye to nirvana।
Jo na hue to mohmaya।।
(In context of achieving goal)
#inspired -
क़ुर्बते होते हुए भी फ़ासलों में क़ैद हैं
कितनी आज़ादी से हम अपनी हदों में क़ैद हैं
~सलीम कौसर -
वो कही तो मिले वो कभी तो मिले
ख़्वाब में ही सही ज़िन्दगी तो मिले
~मंज़र भोपाली -
वो भी हमारे फैसले पर बोलते हैं
जिनको हमारे हौसले पर बोलना था ।।
©sanki_shayar -
किसी ने बाँध रखे हैं मेरे पर
किसी ने जाल में उलझा दिया है,
किसी ने घोसले का ख्वाब देकर
मुझे एक कटघरे में ला दिया है,
किसी ने कैद कर रखा है मुझको
किसी ने हाथ भी जकड़े हुए हैं,
किसी ने पैर कसकर बेड़ियों में
मेरे सारे कदम पकड़े हुए हैं,
मगर एक आखिरी उम्मीद लेकर
मैं इस दुनिया से लड़ना चाहती हूँ,
किसी बेख़ौफ़ पंछी की तरह ही
मैं फिर एक बार उड़ना चाहती हूँ।
©नित्या सिंह 'भूमि' -
shraddha_shuklaa 81w
वेदना
तुमने जब इन गंदे हाथो से उसका गला दबाया होगा
उसके पिता को उसकी आंखो में रोता पाया होगा
जब तुमने अपने हवसीपन में उसके वस्त्र उतारे होगें
उसकी आंखो से उसकी मां के कई सपने हारे होगें
जब तुमने अपनी हवस में उसकी इज्जत को तार तार किया
राखी वाले हाथों के हर इक धागे पर वार किया
कितने निकृष्ट, निरलज्ज इंसान हो तुम
भूलो मत इक बहन के भी भाई हो तुम
पर हे ईश्वर तेरी बहन को कभी न ऐसा पल दिखे
कभी न ये जहां और न तेरे जैसा कोई कसाई मिले।।।।।
©shraddha_shuklaa"अनुरक्ति" -
उजाड़ा घोसला तो था ही, उस पर पंख भी काटे
न एक निशान छोड़ा था कहीं उसने मेरे घर का,
और एक दिन फिर हवा में छोड़कर बोला कि उड़ जाओ
तमाशा ही बना डाला मेरे टूटे हुए पर का।
©नित्या सिंह 'भूमि' -
आंखों का गुबार आईने पे जम गया
तेज था शोर, मुझसे टकराके थम गया
©pawankumarpatel
